जोधपुर नगर की स्थापना के साथ ही मन्दिरों के निर्माण का क्रम भी शुरू हो गया था और आज शहर के हर गली - चैराहे पर कोई न कोई प्रसिद्व मन्दिर मिल जाएगा। मन्दिर न केवल मनुष्य की आस्था और उपासना के अवलम्ब हैं बल्कि कला- शिल्प और स्थापना के भी सर्वोत्कष्ट उदाहरण है। इनमें कई नए हैं तो कई सैकडो साल पुराने है। इन प्राचीन मन्दिरों मे से एक है सिद्ध गजानन्द मन्दिर । रातानाडा में बना यह मन्दिर जोधपुर का सबसे बडा गणेश मन्दिर है। वैसे तो गणेशजी की पुजा शहर के हर धर में होती है। पर रिद्वि -सिद्वि के दाता गजानन को मानने वाले शहर भर के श्रद्वालु दर्शन के लिए इसी मन्दिर मे आते है। पहाड़ी पर बने इस मन्दिर में पहुचने के लिए दो रास्ते बने हुए है। इनमें एक रास्ता छोटा किन्तु सीढियों का बना हुआ है। जबकि दूसरा सडक का रास्ता कुछ लम्बा है जिस पर वाहन के जरिये भी ऊपर तक पहुंचा जा सकता है। भूतल से लगभग 108 फीट की ऊंचाई पर बने इस मन्दिर में जाने पर लोगों को सिद्ध गजानन्द जी के दर्शन तो होते है ऊचाई से शहर का विहंगम द्श्य भी देखा जा सकता है। पहाडी पर ताजा और ठंडी हवा उन्हे सुकून पहुचाती है। कई लोग प्रदुषण से दूर इस प्राकतिक वातावरण में कुछ समय बिताने के लिए ही पहाडी पर जाते है। और मन्दिर के दर्शन भी कर लेते है। सिद्ध गजानन्द मन्दिर कितना पुराना है। इसका कोई लिखित इतिहास उपलब्घ नही है। अनुमान है कि यह वर्तमान मन्दिर करीब डेढ सौ साल पुराना है। लेकिन श्री सिद्ध गजानन्द जी की मूर्ति के इतिहास की कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है मन्दिर के मौजुदा पुजारी बताते है। कि उनकी चैथी पिढ़ी इस मन्दिर की सेवा में लगी हुई है वर्तमान पुजारीयों में प्रदीप शर्मा ने बताया कि उनके बुजुर्ग जंगल से गुजर रहे थे तो ए क शेरनी अपने चार बच्चो के साथ नजर आई वे स्थिर वही जंगल में रूक गये कुछ समय बाद शेरनी अपने बच्चो को छोड. शिकार के लिए चली गई तब उन बुर्जुग ने हिम्मत दिखाते हुए उन मे से दो बच्चो को उठा कर राजा महाराज को दरबार में भेट किया। राजा बहुत प्रसन्न हुए। और उन्हे इसके बदले मुह मांगी वस्तु मागने को कहा। मगर पुराने समय में लगभग सभी लोग साधारण, सादगी पूर्ण, लोभी लालची नही हुआ करते थे। अतः उन्होने कुछ भी नही माॅगा उनके बार-बार मना करने के बावजुद राजा जी ने उन्हे जबरदस्ती रातानाडा गजानन्द जी मन्दिर के आस-पास की जमीन भेट में दी और मन्दिर में पुजा करने के लिए नियुक्त किया। मन्दिर के पुजारी श्री प्रदीप शर्मा के अनुसार उनके पुर्वज ने इस मन्दिर की पुजा शुरू की उस समय मात्र श्री सिद्ध गजानन्द जी मुर्ति थी और मन्दिर भी छोटा था। मन्दिर का यह रूप 1964 तक बरकरार रहा। 1964 में इसके जीर्णोदार में मन्दिर परिसर का आकार ब मन्दिर में रोजाना नियमित रूप से आने वाले श्रद्वालुओ की भिड़ रहती है। यहां आने वाले भक्तों में कुवारो की तादाद ज्यादा रहती है। कुंवारे लडके और लडकियां बेहतर जीवन साथी की तमन्ना में यहां आते है। मनौती की मौली बांधकर वे सात बुधवार को यहां आकर पूजा करते है। ऐसा माना जाता है। कि सात बुधवार के बाद उनकी तपन्ना पूरी हो जाती है। यहां पुत्र प्राप्ति की मनौती के लिए भी स्त्रियां अक्सर आती रहती है। उनको भी सात बुधवार तक व्रत करना पडता है। पुजारी ने बताया कि कई बार मौलियाॅ इतनी हो जाती है। कि झरोखा बंद हो जाता है। और वहां से गणेश जी का दिखना बन्द हो जाता है। मन्दिर में हर चतुर्थी को सुन्दरकांड का पाठ, गणेश स्तुति, पूजा अर्चना और भजन कीर्तन के कार्यक्रम आयोजित होते है। साल में गणेश चतुर्थी को गजानन की मूर्ति का विशेष शंृगार किया जाता है। उस दिन विशेष आरती होती है। उस दिन मन्दिर में रोशनी की जाती है। मन्दिर में रोशनी दीपावली, राखी और जन्माष्टमी के अवसर पर भी की जाती है। इस मन्दिर का महत्व इसलिए भी है। कि जोधपुर में तीन साल में एक बार आयोजित होने वाली भौगिशैली परिक्रमा से इसका विशेष जुडाव है। सांत दिन की पैदल परिक्रमा इसी मन्दिर से शुरू होती है। और यही आकर सम्पत्र होती है। ु दण्डवत परिक्रमा भी करते हैं।
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